साँची कहो वाले राज चड्ढा
कक्षा 8 के छात्र राज चड्ढा ने अपने जीवन का पहला व्यंग्य लिखा था गौरमी स्कूल की मैगजीन में। शीर्षक था ‘लाइका’।
’लाइका’ उस फीमेल डॉग का नाम था जिसे रूस ने अपने रॉकेट में बिठा कर अंतरिक्ष में भेजा था।
यह व्यंग्य अपने शिक्षक श्री घनश्याम कश्यप जी के आग्रह पर लिखा था।कोई 40 वर्ष बाद जब श्री कश्यप मेरी दुकान के आगे निकल रहे थे तो मैं अपनी दुकान से कूद कर पहुँचा और अपने गुरु जी के चरण स्पर्श किए। गुरुजी ने अपने प्रिय शिष्य को गले से लगाया और उसके प्रथम लेख का पहला पैराग्राफ ज्यों का त्यों सुना दिया। मेरी आँखें भीग गईं। गुरुजी के आशीर्वाद ने मेरे व्यंग्यकार को प्रामाणिकता प्रदान कर दी।’दैनिक स्वदेश’ के प्रथम संपादक श्री राजेंद्र शर्मा जी ने एक निर्बाध स्तंभ लिखने का अवसर दिया, ‘साँची कहीं तो क्यों डरूं’।इस साप्ताहिक व्यंग्य स्तंभ को आशातीत सफलता मिली। पाठकों की प्रत्येक शुक्रवार को प्रतीक्षा रहती।
एक बार ‘स्वदेश’ ने सर्वेक्षण कराया पाठकों से कि आप ‘स्वदेश’ क्यों खरीदते हैं?
सवाधिक उत्तर आए (55%) क्योंकि इसमें राज चड्ढा का व्यंग्य ‘साँची कहीं’ होता है।
चुनावों में श्री माधव राव सिन्धिया का हैलीकॉप्टर क्षतिग्रस्त हो गया। श्री आलोक तोमर और श्री जयकिशन शर्मा माधवराव जी का हाल-चाल जानने गए। छूटते ही श्री सिन्धिया पूछते हैं, “यह राज चड्ढा कौन है?” जयकिशन जी ने जवाब दिया जनपार्टी के कार्यकर्त्ता हैं और ‘स्वदेश’ के व्यंग्य लेखक। माधवराव जी ने पूछा, करते क्या हैं? आलोक तोमर ने कहा, बाड़े पर उनको कपड़े की दुकान है। श्री सिन्धिया बोले, एक दुकानदार और इतना साहसिक लेखन?
एक बार पार्टी के सम्मेलन में भाग लेने भोपाल गया। एक भोपाली मित्र साथ थे। उनके साथ हम सड़कों पर चहलकदमी कर रहे थे। अचानक उनका कोई परिचित उन्हें देख कर रुका। मित्र ने उनसे मेरा परिचय कराया। ये ग्वालियर से हैं, राज चड्ढा। तो उनके मित्र ने विस्मयपूर्वक पूछा— ‘साँची कहीं’ वाले राज चड्ढा? मैंने कहा ‘तो साँची कहीं भोपाल तक आ पहुँचा है?’ वे बोले ‘मैं तो मन्दसौर से हूँ। साँची कहीं कहाँ का भक्त।’इस प्रकार इस नाचीज को लोग ‘साँची कहीं वाले राज चड्ढा’ के नाम से जानने लगे।

